Thursday, March 15, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                     असगर वजाहत


पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 

पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  


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मेरी धूप

मेरी धूप बीमार पड़ी है
मेरे सूरज को घड़ियों ने काट दिया है
दफ्तर के दरवाजे के बाहर
मेरी नज़्म मेरे इंतजार में बूढ़ी हो गई
उस बेचारी के लंबे सुंदर बाल
बिना सहलाए ही सफेद हो गए

मैं कुर्सी में चिन दिया गया हूं
कुर्सी में चिने हुए पुत्रों को साहबजादे कौन कहेगा ?

सर्कस वाला बूढ़ा शेर अभी आएगा
मेज पर बिखरे सपनों को देख
सूर्य पेड़ों नदियों के सायों को
मेज पर बिछी लंबी लंबी सड़कों को देख
गर्मा जाएगा
अपनी कहर भरी नजर डाल
मेरे सपनों को भस्म कर देगा

मैं आसमान, सड़कें, मैं जंगल
गुच्छा मुच्‍छा होकर एक दराज के अंदर बैठ जाऊंगा
विष घोलूंगा, सांप बनूंगा
मैं तो मोर था सांप बन गया हूं
अब तो मुझे मोरनियों से डर लगता है
रंग बिरंगे नोटों की तितलियां पकड़ते
लक्कड़ लोहे और अंधेरे के जंगल में
सारे दोस्त गुम हो गए हैं
देखते देखते अपना शहर पराया हो गया
कविता बाहर बीमार पड़ी है

मैं हूं, एक साफ शीशा है
जो मेरा इतिहास नहीं जानता

मैं एक दिन जिस रेत में से
दोस्तों, काफिले और सपनों के साथ गुजरा था
उसे कुछ भी याद नहीं है

जिस रेत पर मेरे पैरों के निशान थे
वही रेत अब सिर पर है
कण कण कर अंगों पर गिर रही है

मैं खंड-खंड रेत में खो रहा हूं
आखिर एक दिन रेत में चिन दिया जाऊंगा
रेत में चले गए पुत्रों को साहबजादे कौन कहेगा ?

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