Friday, January 9, 2009



उदासी के कारोबार



मुंबई के अखबार उर्दू टाइम्‍स ने हिंदी अखबार निकाला। उसके संपादक थे सुधांशु शेख्‍ार। वहां मैंने कुछ अर्सा अंतर्नाद, फिर बात बे बात कालम ल‍ि‍खा। उसी की एक कड़ी यह है




गुणीजन अकसर कहते हैं कि हमारा भारत वर्ष एक साथ कई सदियों में जीता है। एक तरफ अति आधुनिक ज्ञान विज्ञान है, तो दूसरी तरफ कबीलाई झाड़ फूंक, बलि और जादू टोना। एक तरफ सूचना क्रांति दुनिया को मुट्ठी में कर लेने को उद्धत है, तो दूसरी तरफ बस्तियों के बीच इतनी दूरी है कि बीमार अस्पताल तक पंहुचने से पहले दम तोड़ देता है। एक ओर नवीन है, तो दूसरे छोर पर प्राचीन है। समाज में। लोकाचार में। ये ओर छोर आदमी के भीतर भी हैं। रस्सी की तरह तने हुए। जाल की तरह बिछे हुए। एक ही वक्त में ग्लोबल गांव का शिकंजा कस रहा है और अंध विश्वासी टाइप की पुरानी परंपरा भी कुंडली मार के बैठी है। आदमी एक कदम आगे बढ़ाता है। एक कदम लड़खड़ाता है।

नई चीजों, नई तकनीक टेक्नोलोजी को हमारे लोग कई बार ऐसे नायाब तरीकों से इस्तेमाल करते हैं कि उसका रूप सरूप ही बदल जाता है। जैसे हलवाई अपनी भट्ठी के आगे बिजली का पंखा रख देगा। दो मिनट में कोयले दहकने लगते हैं। ट्रैक्टर ट्राली का तो किसान न जाने कितनी तरह से उपयोग कर डालते हैं। इससे काम तो आसान होता ही है, बाज दफे मनोरंजन भी होता है। इनमें मसखरी छुपी रहती है। एक ऑटो रिक्शा वाला अपना एक पैर आगे चल रहे ऑटो की पिछाड़ी पर टिकाए हुए है। मानो पैर में चुंबक है और अगला ऑटो पिछले ऑटो को खींच रहा है। लेकिन सच यह है कि पिछला ऑटो अगले ऑटो को धकेल रहा है। बहुत कम मेहनत से यह काम हो रहा है। ट्राली पकड़ कर चलने वाले साइकल सवार तो सबने देखे होंगे। कस्बों गांवों में अब यह दृश्य मनोरंजन भी पैदा नहीं करता। चाकू कैंची की धार तेज करने वाला साइकिल के कैरियर पर बैठकर पैडल चलाते हुए यह काम निबटाता है। उसकी यह घूमंतू फैक्ट्री हर गली मुहल्ले में सेवा देती है।

मेहनत, नया, पुराना और मशीन की यह कला काम को आसान और आरामदेह बनाती है। कई बार निठल्ला भी कर देती है। मेहनत से तो सुंदरता और जिंदादिली पैदा होती है, वह यहां गायब हो जाती है। माहौल भी बिगाड़ देती है। यह पचमेल सारी गतिविधि में से आत्मा को पछाड़ के फैंक देता है।

आपने देखा होगा, नीम हकीम जगह जगह घूमते रहते हैं। इनमें से कुछेक मर्दानगी की दवाएं बेचते हैं। शहर शहर घूमते हैं। एक जगह हफ्ता दस दिन तंबू तान के रहते हैं। फिर आगे बढ़ जाते हैं। ये लोग बीच बीच में मुंबई भी आते हैं। कई कोने ऐसे हैं, जहां इनकी पूछ है।

इस पेशे में पठान पहलवान टाइप आदमी मजमा लगाता था। चटपटे किस्से और नॉनवैजिटेरियन किस्म के चुटकुले सुनाता था। मर्दानगी को ललकारता था। पोषण के लिए दवा बेचता था। लोग इस मजमे को इस अंदाज से देखते थे कि कोई उन्हें पहचान न ले। पर वे दवा खरीद लें।

इधर ये पहलवान भी आरामतलब हो गए हैं। इतने कि लगता है पुश्तैनी धंधा ही चौपट कर देंगे। हालांकि एक तरह से अच्छा ही होगा। मर्दानगी के नाम पे आदमी बेवकूफ तो न बनेगा। खैर इस वक्त उनकी काहिली और आरामतलबी पर ही तव्वजो दें।

इन महानुभावों ने मजमा लगाने वाला अपना भाषण रिकार्ड करवा लिया। सोचा होगा जबान को आराम रहेगा। अब मजमेबाज ऊंघता रहता है। कैसेट बजता रहता है। इतनी एकरसता से बजता है कि मनहूसियत छाने लगती है। मजमा क्या खाक लगेगा! बदरंग हुए कपड़े पर उसका दवा दारू बिछा रहता है। जवानी का मारा क्या देखने वहां जाएगा! जिंदगी से हारा हुआ ही जाएगा। जो अवसाद से घिरा हो। जिसके पास कोई काम धंधा न हो। वक्त कटता न हो। काटने को दौड़ता हो। ऐसा ही थका हारा उसकी धूल खाती शीशियों को उलट पलट के देखेगा।

इन्हीं लोगों की एक दुकान हाल में दिख गई। मजमा जमीन पर नहीं था। एक पुरानी मेटाडोर सड़क किनारे खड़ी थी। ऊपर बैनर लगा था। खूब नीचे तक लटका हुआ। यह जानने के लिए कि मेटाडोर में क्या है, मुझे अपना सिर घुटनों तक झुकाना पड़ा। एक दरवाजा सा खुला हुआ था। दवाएं रखी हुई थीं। कैसेट बजे जा रही थी। आदमी का नामोनिशान नहीं था। ग्राहक के बारे में तो सोचना ही बेकार। तेज और शोरशराबे वाली ट्रैफिक से भरी सड़क के किनारे यह दुकान क्या सोच कर लगाई गई होगी। भीड़ के बीच में मुर्दनगी भरे कोने को साकार करती हुई। मर्दानगी की दवा बेचते हुए।

ताज्जुव है कि कोई ग्राहक वहां दिखता नहीं है। लेकिन व्यापारी को कहीं तो ग्राहक मिलते होंगे। तभी तो वह मेटाडोर खरीद पाया है। वरना टेंट से गठड़ी पर आता। यह तो तंबू से टेंपू की तरफ बढ़ा है। वह शायद अवसाद, उजाड़ और मुर्दनगी के बीच भी धंधा कर लेता है।